Monday, July 2, 2012

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शिक्षा के संदर्भ में रेडियो कॉलर


Description: http://www.pravasiduniya.com/wp-content/uploads/2011/05/trivalley-university1-225x149.jpgदूर देश से खबर आई है कि कुछ भारतीय छात्रों पर नजर रखने के लिए उनके पैरों में रेडियो कॉलर पहना दिया गया है।  गायगोरूके तर्ज पर विधार्थियों कोरेडियोकॉलरके पहनाए जाने की घटना ने विवाद ही नहीं गहरे असंतोश को भी जन्म दिया है, भारतीय एवं अभारतीय दोनों स्तरों पर। इस घटना के कारण ट्राई वैली यूनिवर्सिटी का षड्यंत्रित विवादित सत्य उभरकर पूरी दुनियां के सामने आ गया है।  वास्तव में हुआ कुछ ऐसा कि अमेरिकी इमीग्रोन डिपार्टमेंट के द्वारा किए गए स्टिंग आपरोनके दौरान यह सच्चाई छिपी न रह सकी कि जिन पंद्रह सौ (150) छात्रों से दो सेमेस्टर की फीस (2,700 डॉलर प्रति सेमेस्टर) लेकर उन्हें पढने के लिए, डिग्री हासिल करने के लिए अमेरिका बुलाया गया था, वहां यूनिवर्सिटी वास्तव में थी ही नहीं। वह एक धोखा था। एक कमरे से संचालित उस यूनिवर्सिटी में न तो कालेज की बिल्डिंग थी,  शिक्षकगण, न ही शिक्षण सामग्री। ग्लोबल स्तर के इस धोखाधड़ी के प्लान के अंतर्गत प्रति छात्र 5,400 डॉलर जमा किए गए यानि कि कुल मिलाकर 91 लाख डॉलर जिनका मूल्य लगभग 36,450,0000 रु के बराबर होता है।  धोखाधड़ी के नाम पर जमा की गई इस रकम के बारे में सोचने पर कई मांबाप के निरीह चेहरे सामने आ जाते हैं।
इस पूरी कहानी ने कुछ प्रकार आकार लिया कि अमेरिका पढने जाने के लिए उत्सुक छात्रों ने विदो की धरती पर पैर तो रक्खा, छात्र के रूप में, लेकिन वे अलग-अलग जगहों पर मात्र नौकरी करते हुए पाए गए और इस प्रकार इमीग्रोनफ्रॉडके अंर्तगत पकड़ लिए गए।  यह तय है कि पैसे खर्च करके पढने  गए इन छात्रों का मकसद मात्र ज्ञान अर्जन नहीं था बल्कि डिग्री हासिल करके आगे उपार्जन करना ही उनका ध्येय था। और जैसा कि हम जानते हैं कि विकसित दो अमेरिका में पढाई के साथ-साथ उपार्जन करना जरूरी माना जाता है, तो यदि ये छात्र पढने के साथ नौकरी करते हुए पाए जाते तो गलत नहीं साबित होते। लेकिन यूनिवर्सिटी तो वहां मौजूद थी ही नहीं। इन सभी तथ्यों पर एक साथ नजर डालने पर इन सभी जानकारियों सेशिक्षा और शिक्षण  के संबंध में रूब-रू होते हुए, कोठारी कमीशन (196466) के द्वारा दी गई हिदायतों की याद आती है…. जिसमें कहा गया था कि शिक्षा-पद्धति में टर्निंग प्वाईंटस को आठवीं और दसवीं कक्षा में जगह दी जाए अर्थात यदि कोई छात्र चाहे कि वह आठवीं कक्षा के बाद पढाई न करे तो वह आसानी से पढाई  छोड़कर उपार्जन के रास्ते पर लग जाए और इसकी खातिर बच्चों को ऐसी व्यावहारिक शिक्षा  भी दी जाए, जिसके बल पर वे आठवीं या दसवीं कक्षा में पढाई छोड़ने पर उपार्जन कर सकें अर्थात क्राफ्ट ओरियंटेड एजुकोनके अंर्तगत आठवीं एवं दसवीं कक्षा में टर्निंग प्वांएट की जरूरत को कोठारी कमीशन  ने इंगित किया था साथ ही क्राफ्ट ओरिएंटेड शिक्षा” की बात भी कही थी।
अगर थोड़े में कहें तो कहा जा सकता है कि कोठारी कमीन ने ऐसी शिक्षा  विधि की बात कही थी जिसके अंतर्गत बच्चे कुछन-कुछ ऐसा हस्तिल्प आदि सीख ले, जिसके बल पर वे उपार्जन कर सकें औरलिटरेटहोने के पचात वे अपने बलबूते पर अपना भरणपोशण कर सकें। छात्रों के लिए, नवयुवकों के लिए यह एक महत्वपूर्ण सलाह थी कि वे किसी भी हुनर (कुर्सी बुनना, ब़ईगिरी, स्कूटर मैकेनिक) को सीखने के पचात स्वयं उपार्जन करें और स्वाभिमान का जीवन जिएं। इस तरह कोठारी कमीन ने बड़े कायदे से शिक्षा को उपार्जन से जोड़ देने के साथ ही बेरोजगारी हटाने की बात कही थी   अगर ट्राई वैली कारनामे पर हम खुली हुई दृश्टि डालें तो पाते हैं कि उपार्जन करना की वह मुख्य मुद्दा है, जिसके तहत भारतीय छात्र अपना दोपरिवार सभी कुछ छोड़कर सात समंदर पार चले जाना स्वीकार कर लेते हैंस्वाभिमान त्याग कर जानवरों जैसा पैरों में रेडियो कॉलर भी पहन लेते हैं लेकिन वापस अपने दो लौटना उन्हें स्वीकार्य नहीं।  इस बिंदु पर पंहुचकर अमेरिका इंग्लैंड समेत विदों में रह रहे सभी भारतीयों के चेहरे एक साथ एक ही फ्रेम के अंतर्गत सामने आने की चेष्टा  करते हैं। दशकों पहले से लेकर आज तक अनेकों दिन, अनेकों वर्षों में न जाने कितने भारतीय उपार्जनकी खातिर विदो गए हैं, पहले पढाई डिग्री, फिर नौकरी और बाद में वे वहीं बस भी गए हैं। बहुतों की नजर में वहां सुकुन है, सुरक्षा है, ’वर्कप्राइडका भाव जीवंत है और साथ में पैसा तो है ही। लेकिन पैसा और सुख सुविधा के साथ-साथ एक कसक भी है, ’अपनोंसे दूर रहने का दर्द ताउम्र प्रवासियों के संग रहा करता है, वे कितना भी चाहें लेकिन भारतवर्षको भूल नहीं पाते (कारण जो भी हो) और मौका मिलते ही कुछ दिनों के लिए यहां आ जाया करते हैं।  अभी के ग्लोबल समय में हमें इन जरूरी तथ्यों पर एक बार समग्रता में जरूर सोचना चाहिए। कुछ प्रश्न ग्लोबल स्तर (फेसबुक, ऑरकुट आदि) पर उठाने जरूरी हैं कि भारतीय शिक्षा  पद्धति में वे कौन से ब्लैक होल हैंजो छात्रों को ढंग के उपार्जन नामक तत्व से दूर रक्खा करते हैं। और इसी कारण बदले में उन्हें देश निकाला जैसा मिल जाया करता है, एक दो को नहीं बल्कि हजारों-लाखों भारतीयों को यह देश निकाला मिला हुआ है।
हमें स्वीकार करना होगा कि ये प्रन हम सभी के हैं क्योंकि छात्र जो ट्राई वैली यूनिवर्सिटीमें पढने  विदेश गए थे, जिन्हें रेडियो कॉलर पहनाया गया है, वे भारत से ही तो गए है।  यह भी एक कड़वा सच है कि टैलेंट निर्यातकी बात कोई नई बात नहीं है जब से आई.आई.टी है तब से कुशाग्र भारतीय विधार्थी विदेश जाते ही रहे हैं, उसके पहले भी शास्त्रों में इस बात की चर्चा मिलती है कि जरूरत पड़ने पर दूसरे राज्य, दूसरे लोक से विद्वजनों को छल-बलपूर्वक कहीं और ले जाया गया है।  यदि इतिहास-पुराण पर नजर डालें तो टैलेंटनिर्यातसे मिलता जुलता उदाहरण वरूणदेव के राज्य में होने वाले यज्ञ के संदर्भ में मिलता है जहां तयशुदा नीति के अंतर्गत शास्त्रार्थ tमें हारे हुए विद्वान ऋषियों (स्कालर) को समुद्र में डुबो देने का उल्लेख मिलता है। वास्तव में एक बड़े यज्ञ में यज्ञकर्म हेतु ऋषियों को ले जाने की वह कपटपूर्ण नीति थी। इसी क्रम में अष्टावक्र मुनि के पिता कहोड़ ऋषि को भी शास्त्रार्थ में हारने के पचात समुद्र में डुबो दिया गया था। बहुत वर्षों  के बाद बड़े होने पर अष्टावक्र ने उसी शास्त्रार्थ में जीतकर, अपने पिता की वापसी की मांग की थी और कहोड़ के संग अन्य विद्वानों को भी पृथ्वी पर वापस ले आए थे। यह पुरातन कथा आज के संदर्भ में नए ढंग से उभरकर सामने आती है। हमें विचार करने पर विवा करती है।  अंत में यह कहना चाहिए कि भारत एवं भारतीयों को इंतजार है एक ऐसे महान कार्य के कार्यान्वन का, जिसके बल पर रेडियोकॉलरउतारकर हमारे वे युवा वापस घर लौट सकें , जो ट्राईवैली यूनिवर्सिटी कांडके शिकार बने हैं और उनके संग अन्य निर्यातितविज्ञ मस्तिष्क धारक भी।  एक प्रतीक्षा पूरे विश्व के आकार पर उभरती है।
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इला कुमार

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