Saturday, March 9, 2013


 क्या चाहती है स्त्री
     एक स्त्री
     आखिर चाहती क्या है
     कैसे होते हैं उसके स्वप्न

     कई बार बताया है उसकी जगह उसके लिए स्वप्न देखने वाले स्वप्नद्रष्टाओं ने

    ‘‘हे स्त्री ! हे पुत्री बहन माता !
     तुम इस वस्तु को चाहो
     तुम वह स्वप्न देखो
     तुम्हें देखना चाहिए एक अच्छी पत्नी
     एक उदार माँ बनने का स्वप्न
     एक आज्ञाकारिणी पुत्री और एक धैर्यशीला बहन बनने का स्वप्न’’

स्त्री ! तुझे यह भी मान लेना चाहिए
कि पृथ्वी,
     यह वेन पुथु की पृथिवी
पालित है पुरुषों द्वारा
रक्षिता हो तुम पुरुख रिश्तों के बीच

स्त्री ! मानिनी ! अभिमागिनी !
तुम्हें यह भी जान लेना चाहिए कि
तुम्हारे मान-मर्यादा के रक्षक हैं हम
और हमारी जाति ही है वह रक्षक
जिसकी मान-मर्यादा
हमेशा
तुम्हारे आचरण के बीच बनी रहती है रक्षित

तुम्हीं हो हमारे लिए
देवी स्वरूपा
मातः रूपा
हमारा पुरुख समाज, सस्वर तुम्हारी वंदना में
स्रोत उच्चारता है

वही समाज स्त्री को पैरों की जूती समझते हुए उम्र गुजारता है
भ्रूण हत्या के लिए लगातार उकसाता है
दहेज न लाने पर प्रताड़ित कर
घर के बाहर ढकेलता है
हर उम्र में हर ओर से उसे
बंधन दर बंधन बांध देना चाहता है
स्वप्न स्त्री की पलकों पर जल्दी नहीं उतरते
वे तो उसके माथे पर चिपकाए जाते हैं
लाल तपे सिक्के की तरह
गोल बिन्दी की ‘ाब्ल में

यदि बिन्दी से हटकर
कभी किसी काल में
कोई स्वप्न उतर आए स्त्री की पलकों के भीतर
उस स्वप्न की तह तक
पुरुष का पौरुष पहुँच जाना चाहता है
स्वप्न की हर तह को
अपने तरीके से ठीक कर देना चाहता है
चाहे इसकी खातिर
कितनी भी मान्यताओं को
और खंडित क्यों न करना पड़े
नई मान्यताओं को गढ़ना पड़े, प्रतिस्थापित करना पड़े

स्त्री के स्वप्नों का स्वप्न-द्रष्टा
उसका भाग्यकर्ता बने रहना चाहता है

युगों से

युगों तक