वेदान्त का पन्ना
चित्त : कुछ बिम्ब
दिन प्रतिदिन की भागदौड़ के बीच कई बार ऐसा होता है कि अच्छे धुले कलफदार पकड़ें से सजा हमारा व्यक्ति त्व कांति बिखेरता दीख पड़ता है , शरीर भी तरोताजा , क्लांत नहीं .
लेकिन चित्त अशांत हो उठता है , किसी भी कार्य को करने की इच्छा नहीं होती . नकार भरी भावनाओं के रेलें दिमाग़ में चले आते हैं और अनमनी सी मनःस्थिति में हम कह उठते हैं कि _ " आज चित्त अच्छा नहीं है " या " मेरा चित्त खिन्न है " वगैरह, वगैरह .
ऐसे में किसी प्रबुद्ध व्यक्ति के मन में सहज रूप से एक प्रश्न आकार लेता है ... कि चित्त वास्तव में है क्या ? कैसा । वह चित्त ?
चित्त : कुछ बिम्ब
दिन प्रतिदिन की भागदौड़ के बीच कई बार ऐसा होता है कि अच्छे धुले कलफदार पकड़ें से सजा हमारा व्यक्ति त्व कांति बिखेरता दीख पड़ता है , शरीर भी तरोताजा , क्लांत नहीं .
लेकिन चित्त अशांत हो उठता है , किसी भी कार्य को करने की इच्छा नहीं होती . नकार भरी भावनाओं के रेलें दिमाग़ में चले आते हैं और अनमनी सी मनःस्थिति में हम कह उठते हैं कि _ " आज चित्त अच्छा नहीं है " या " मेरा चित्त खिन्न है " वगैरह, वगैरह .
ऐसे में किसी प्रबुद्ध व्यक्ति के मन में सहज रूप से एक प्रश्न आकार लेता है ... कि चित्त वास्तव में है क्या ? कैसा । वह चित्त ?
2 comments:
जब वेदान्त से सम्बंधित कुछ सोचना चाहती हूँ, तो मेरे मन में क्या आता है ? .... अष्टावक्र-संहिता? अवधूत-गीता ? , पंचदशी ? , विवेक चूड़ामणि ? , योगवाशिष्ठ के पांचों खंड ? , अष्ट उपनिषद छान्दोग्य और बृहत् आरण्यक उपनिषद ? या ब्रह्म सूत्र ?
नहीं , ये तो वे किताबें हैं जिन्हें मैंने पढ़ा है , ब्रह्म सूत्र को ढ़॔ग से पूरा एक बार में नहीं पढ़ा - यह भी सही . क्योंकि जब भी ब्रह्म सूत्र शुरू करती व्हाट निर्देशित उपनिषद को पढ़ने बैठ जाती , कभी कभी वापस ब्रह्म सूत्र पर लौटती ही नहीं ....
तो ऐसा बीता है वेदान्त की पुस्तकों के साथ समय .
लेकिन वेदान्त की बात मुझे ले जाती है न्यांगटा बाबा के आश्रम में , उस बरामदे में , जहान नाश्ते के बाद दादा कोई एक पुस्तक के पन्ने पढ़ते थे फिर हमसबों से पूछते थे , " बालों , कोई प्रश्न है की ? "
मैं मृत्युंजय नीलू दा बैद्यनाथ मिश्र और वहीं पुरी के कुछ लोग .
कभी - कभी बाबा का अनन्य भक्त उसी बीच अंदर मंदिर में पूजा करते हुए चिल्लाता , " अंतरजामि ऽऽ ऽ " वह इतने जोर से और आय
तने लगाव से अपने आराध्य को पुकारता कि हम सभी चौंक पड़ते .
दादा मुस्कुराते , " ऊ देखो , आ गिआ "
वही जगह थी जहां से सही वेदान्त की शिक्षा हुई और जो परिवेश मन में प्रथम प्रेम की अनुभूति की नाईं गड़ा रह गया है .
जब भी आत्म के बारे में सोचा वह परिवेश मेरे करीब आता है .
मैं स्वयं उस समय को बराबर याद रखना चाहती हूँ, रखती हूँ .
कमेंट ?
इस अनुभूति को तो बस महसूस किया जा सकता है .
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