Monday, April 13, 2020

वेदान्त का पन्ना

वेदान्त  का पन्ना 

चित्त  : कुछ  बिम्ब 

दिन प्रतिदिन की  भागदौड़  के बीच  कई बार  ऐसा  होता  है कि  अच्छे  धुले   कलफदार  पकड़ें से सजा  हमारा व्यक्ति त्व  कांति  बिखेरता  दीख पड़ता  है , शरीर  भी तरोताजा  , क्लांत  नहीं  .

लेकिन चित्त  अशांत  हो  उठता  है , किसी भी कार्य को  करने की  इच्छा  नहीं होती  . नकार  भरी भावनाओं  के रेलें दिमाग़  में  चले आते हैं  और अनमनी  सी मनःस्थिति  में  हम कह उठते हैं  कि  _ "    आज चित्त  अच्छा  नहीं  है  "      या   "     मेरा चित्त  खिन्न  है    "   वगैरह,  वगैरह  .

ऐसे में  किसी  प्रबुद्ध  व्यक्ति  के मन में  सहज रूप से एक प्रश्न  आकार  लेता है    ...   कि चित्त  वास्तव में  है  क्या  ? कैसा  । वह चित्त  ? 

2 comments:

ilakumar said...

जब वेदान्त से सम्बंधित कुछ सोचना चाहती हूँ, तो मेरे मन में क्या आता है ? .... अष्टावक्र-संहिता? अवधूत-गीता ? , पंचदशी ? , विवेक चूड़ामणि ? , योगवाशिष्ठ के पांचों खंड ? , अष्ट उपनिषद छान्दोग्य और बृहत् आरण्यक उपनिषद ? या ब्रह्म सूत्र ?
नहीं , ये तो वे किताबें हैं जिन्हें मैंने पढ़ा है , ब्रह्म सूत्र को ढ़॔ग से पूरा एक बार में नहीं पढ़ा - यह भी सही . क्योंकि जब भी ब्रह्म सूत्र शुरू करती व्हाट निर्देशित उपनिषद को पढ़ने बैठ जाती , कभी कभी वापस ब्रह्म सूत्र पर लौटती ही नहीं ....
तो ऐसा बीता है वेदान्त की पुस्तकों के साथ समय .
लेकिन वेदान्त की बात मुझे ले जाती है न्यांगटा बाबा के आश्रम में , उस बरामदे में , जहान नाश्ते के बाद दादा कोई एक पुस्तक के पन्ने पढ़ते थे फिर हमसबों से पूछते थे , " बालों , कोई प्रश्न है की ? "
मैं मृत्युंजय नीलू दा बैद्यनाथ मिश्र और वहीं पुरी के कुछ लोग .
कभी - कभी बाबा का अनन्य भक्त उसी बीच अंदर मंदिर में पूजा करते हुए चिल्लाता , " अंतरजामि ऽऽ ऽ " वह इतने जोर से और आय
तने लगाव से अपने आराध्य को पुकारता कि हम सभी चौंक पड़ते .
दादा मुस्कुराते , " ऊ देखो , आ गिआ "
वही जगह थी जहां से सही वेदान्त की शिक्षा हुई और जो परिवेश मन में प्रथम प्रेम की अनुभूति की नाईं गड़ा रह गया है .
जब भी आत्म के बारे में सोचा वह परिवेश मेरे करीब आता है .
मैं स्वयं उस समय को बराबर याद रखना चाहती हूँ, रखती हूँ .

ilakumar said...

कमेंट ?
इस अनुभूति को तो बस महसूस किया जा सकता है .