Monday, June 30, 2014

दीमकों की बस्ती

वह खुद से डरता है
एक अनजाने भय के आकाश तले अनाम चिंता से मन ही मन कांपता हुआ
बिलावजह बेबात नए कलहों में उलझ जाता है

मुख्य द्वार पर
पिता के बनवाए शानदार मकान के प्रथम खम्भे पर से
उसने
पिता का नाम बेझिझक मिटा दिया है
अपने नाम की जगमगाती तख्ती टाँग दी है

रुग्ण माता के हस्ताक्षर के बल पर
सारी संपत्ति का मालिक बन
तीज-त्योहारों पर बहनों को न्योता-पिहानी नहीं भेजता ..........
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ऊपर से पुख्ता दिखती दीवारों के नीचे
दीमकों की पूरी बस्ती रहती है
उसे वर्तमान का डर नहीं है
वह भविष्य से डरता है
आनेवाले वर्षों में अपने पुत्र के बनाये
नए उसूलों की कल्पना
उसे सोने नहीं देती

वह खुद से ही डरता है
स्वप्न में किये गए दुष्कर्म की भाँति।

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